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तेज विकास या गलत योजना? इंदौर का बीआरटीएस बना मिसाल

इंदौर का बीआरटीएस: गलत योजना, बड़ी चूक

किसी भी काम में समय, जगह और हालात का कितना बड़ा असर होता है, यह इंदौर के बीआरटीएस (बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम) की हालत देखकर समझा जा सकता है। यह वही प्रोजेक्ट है, जिस पर 300 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जो जनता के टैक्स के पैसे से आया था। 2009-10 में जब बीआरटीएस बन रहा था, मैं वहीं था और इस पूरे प्रोजेक्ट की प्रशासनिक प्रक्रिया को नजदीक से देख रहा था। उस समय इंदौर में पहले से ही सिटी बसें चल रही थीं, लेकिन बसों के लिए अलग से एक लाइन बनाने का विचार आया। उस वक्त इतना प्रचार किया गया कि इंदौर का बीआरटीएस कोलंबिया की राजधानी बगोटा जैसा होगा। तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हर दौरे में इसे “सपनों का शहर” बनाने की बात कहते थे, इसलिए चुनाव से पहले शहर को कोई बड़ी सौगात देने की योजना बनी। इसी के तहत, मध्य प्रदेश के कुछ अफसरों को बगोटा भेजा गया, ताकि वहां के बीआरटीएस को समझा जा सके।

बगोटा से लौटते ही आनन-फानन में रिपोर्ट तैयार हुई और बिना ज्यादा सोचे-समझे काम शुरू कर दिया गया। मगर सबसे बड़ी गलती यही हुई कि इंदौर की सड़कों, ट्रैफिक और लोगों के व्यवहार को ध्यान में रखे बिना यह सिस्टम लागू कर दिया गया। बगोटा की चौड़ाई नापकर इंदौर की सड़कों पर बस लेन बना दी गई, लेकिन यह नहीं सोचा गया कि बाकी बची सड़क भविष्य में बढ़ते ट्रैफिक का भार झेल पाएगी या नहीं। संभव है कि अधिकारियों ने इस पर विचार किया हो, लेकिन राजनीतिक दबाव और चुनावी फायदे के लिए “पहले बना लो, बाद में देखेंगे” की मानसिकता अपनाई गई। इंदौर जैसे तेजी से बढ़ते शहरों में जहां अमीरों की संख्या लगातार बढ़ रही है, वहां हर घर में दो-तीन गाड़ियां हैं। ऐसे में पब्लिक ट्रांसपोर्ट को अपनाने की मानसिकता ही नहीं बन पाई। सिंगापुर जैसे देशों में वाहनों पर सरकार का पूरा नियंत्रण है। वहां यह तय किया जाता है कि सड़क पर कितनी गाड़ियां चलेंगी। वहां दशहरा, दिवाली या किसी मेले में गाड़ियां खरीदने की होड़ नहीं होती, बल्कि कार खरीदने की अनुमति मिलना किसी उपलब्धि से कम नहीं होता। यही वजह है कि वहां ट्रैफिक सुचारू रूप से चलता है और पैदल चलने वालों या साइकिल वालों को भी दिक्कत नहीं होती।

भारत में ऐसा करना संभव नहीं है, क्योंकि कार इंडस्ट्री से सरकार को बड़ा टैक्स मिलता है। एक फॉर्च्यूनर गाड़ी से जितना मुनाफा कंपनी को नहीं होता, उससे ज्यादा सरकार कमा लेती है। 48 लाख की इस कार से सरकार को जीएसटी और आरटीओ टैक्स मिलाकर करीब 22 लाख रुपये मिलते हैं। यानी कार की असली कीमत 26 लाख रुपये ही होती है। यही वजह है कि सरकारें वाहन बिक्री को बढ़ावा देती हैं, लेकिन सड़कों और ट्रैफिक की बिगड़ती स्थिति पर ध्यान नहीं देतीं। गाड़ियों की संख्या कम करने की बजाय ग्वालियर और उज्जैन के मेलों में आरटीओ टैक्स में 50% की छूट दी जाती है, जिससे और ज्यादा गाड़ियां खरीदी जाती हैं। अब समाज में यह नया ट्रेंड बन गया है कि हर घर में एक छोटी कार और एक एसयूवी होनी ही चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि ये गाड़ियां घर के अंदर पार्क नहीं होतीं, बल्कि गलियों और मुख्य सड़कों पर खड़ी रहती हैं। अधिकतर पॉश कॉलोनियों में 25 फीट चौड़ी सड़क होती है, लेकिन दोनों ओर गाड़ियां खड़ी होने से 10 फीट भी चलने लायक नहीं बचती। असल मुद्दा यही है कि हमारे समाज में पब्लिक ट्रांसपोर्ट इस्तेमाल करने का चलन ही नहीं है और सरकार भी इसे बढ़ावा देने के लिए कोई बड़ा अभियान नहीं चलाती। जब तक दोनों चीजें साथ नहीं चलेंगी, तब तक परेशानी बनी रहेगी—चाहे वह आपकी कार हो या बीआरटीएस की बस।

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